स्वतंत्रता दिवस पर भी उपेक्षित रहे अगस्त क्रांति के नायक


सुनहरा संसार 


अगस्त क्रांति के दौरान अंग्रेजों के गोलियों से शहीद हुए थे उमाकांत चौधरी


 


राकेश यादव:-


बछवाड़ा


ये मैरे वतन के लोगो जरा आंख में भरलो पानी। 


जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी।। 


देश के चौहत्तरवे स्वतंत्रता दिवस पर आजादी की लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति देने वाले वीर शहीदों की उपेक्षा देखकर जहन में यह लाइने खुद ब खुद गूंजने लगती हैं। लॉकडाउन के बावजूद समूचे देश में सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थानों पर स्वतंत्रता दिवस का राष्ट्रीय पर्व मनाया गया। मगर बिहार सरकार और आजादी को पर्व की तरह मनाने वाले, आजादी के मतवाले बछवाड़ा के उस वीर सपूत उमाकांत चौधरी को भूल गए जिसने गांधी जी के मार्ग दर्शन में अगस्त क्रांति की मशाल को अपने प्राणों की आहुति देकर जलाया था।  


जी हां बछवाड़ा गांव निवासी वीर सपूत शहीद उमाकांत चौधरी , जो अगस्त क्रांति के दौरान 17 अगस्त 1942 अंग्रेजों के गोलियों का शिकार होकर शहीद हो गए और हमें आजाद हिंदुस्तान सौंप गए । उस समय के बच्चे और आज के बुजुर्ग बताते है कि स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान देश के युवाओं में आंदोलन के प्रति सक्रिय जागृति फैलाने हेतु राष्ट्रपिता महात्मा गांधी बछवाड़ा आए थे। बापू को स्थानीय सेनानियों नें नारेपुर पश्चिम स्थित जट्टा बाबा ठाकुरबाड़ी में ठहराया था। वीर सेनानी उमाकांत चौधरी, रायबहादुर शर्मा, मिट्ठन चौधरी आदि आसपास के गांवों में घुम घुमकर युवाओं की टोली को इकट्ठा किया करते थे। तत्पश्चात युवाओं की टोली को बापू ने स्वयं आंदोलन के प्रति प्रेरित कर नयी जान फूंकने का काम किया। 


अगस्त क्रांति के बारे में ऐसा कहा जाता है कि भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए तमाम छोटे-बड़े आंदोलन किए गए। अंग्रेजी सत्ता को भारत की जमीन से उखाड़ फेंकने के लिए गांधी के नेतृत्व में जो अंतिम लड़ाई लड़ी गई थी उसे 'अगस्त क्रांति' के नाम से जाना गया है। इस लड़ाई में गांधी ने 'करो या मरो' का नारा देकर अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए पूरे भारत के युवाओं का आह्वान किया था। इसी वजह से इस आंदोलन को 'भारत छोड़ो आंदोलन' या क्विट इंडिया मूवमेंट भी कहते हैं, वहीं आंदोलन की शुरुआत 9 अगस्त 1942 को हुई थी, इसलिए इसे अगस्त क्रांति भी कहते हैं।


इस आंदोलन की शुरुआत मुंबई के एक पार्क से हुई थी जिसे अगस्त क्रांति मैदान नाम दिया गया। आजादी के इस आखिरी आंदोलन को छेड़ने की भी खास वजह थी। दरअसल जब द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ तो अंग्रेजों ने भारत से उसका समर्थन मांगा था, जिसके बदले में भारत की आजादी का वादा भी किया था।


भारत से समर्थन लेने के बाद भी जब अंग्रेजों ने भारत को स्वतंत्र करने का अपना वादा नहीं निभाया तो महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ अंतिम युद्ध का ऎलान कर दिया। इस ऎलान से ब्रिटिश सरकार में दहशत का माहौल बन गया। इसी अगस्त क्रांति के दौरान अंग्रेजी शासकों के संचार प्रणाली को ध्वसत करने के उद्देश्य से युवाओं की एक टोली रेलवे लाइन व टेलीफोन के तार को बछवाडा़ में छतिग्रस्त किया जा रहा था। तभी मौका-ए-वारदात अंग्रेजी सिपाहियों नें वहां पहुंचकर ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी थी, जिसमें शहीद उमाकांत चौधरी के सहयोगी तो भागने में सफल रहे, मगर उमाकांत चौधरी अंग्रेजों की गोलियों का शिकार होकर शहीद हो गए। 


अब बात करते हैं बिहार की माटी के लाल की, तो जिस माटी में जन्मे और बतन की आजादी की खातिर शहीद होकर जिले और प्रदेश का नाम चिरकाल के लिए रोशन किया आज उसकी आत्मा यह सोच कर दृवित होगी कि आजादी का पर्व मनाने वाले आजादी के मतवाले को ही भूल गए, क्या वाकई आजादी इतनी सस्ती थी ? 


कितने शर्म की बात है कि शहीद उमाकांत चौधरी के बारे में वर्तमान पीढ़ी के युवा पूछने पर कहते हैं कि कौन उमाकांत नहीं मालूम। शहीद के मिटते महत्त्व, नाम व पहचान का जिम्मेवार आखिर कौन है यह सवाल आम भारतीयों के साथ - साथ सत्ता के सौदागरों से भी है, जो शहीदों की शान में कसीदे तो पढ़ते हैं मगर उनके लिए जीते कितने हैं कि एक अदद छाया चित्र भी उपलब्ध नहीं है । 


 इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रशासनिक स्तर पर प्रखंड मुख्यालय अथवा अन्य जगहों पर स्थानीय स्वतंत्रता सेनानियों व शहीदों की सूची व स्मारक तक मयस्सर नहीं है। हालांकि कुछ समय पहले शहीद उमाकांत चौधरी को याद रखने के लिए स्मारक बनाने का प्रयास किया गया था, जो आज दूर से देखने पर महज़ एक गहबर जैसा प्रतीत होता है। उक्त गहबर अगर तिरंगे से नहीं रंगा गया होता तो, वहां से गुजरने वाले राहगीर शौचालय समझ बैठते। शहीद की उपेक्षा का आलम यह है कि राष्ट्रीय पर्व 26 जनवरी हो या 15 अगस्त अथवा शहीद का जन्म दिवस या शहादत दिवस किसी भी अवसर पर यहां सन्नाटा ही रहता है, क्या इसी दिन के लिए उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी थी ?