प्रकृति और विज्ञान के बीच युद्ध , संकट में मानव जीवन

विश्व विजय का सपना टूटा तो ऋषी दधीचि की आई याद


              चलती चक्की देखके दिया कबीरा रोय |


            दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय||


ये पंक्तियां धरती के मौजूदा हालातों पर सटीक प्रहार है जिसमें एक तरफ विज्ञान तो दूसरी तरफ प्रकृति और बीच में पिसता मानव समाज


सुनहरा संसार


ओद्योगिक क्रांति की होड़ कहें या चांद चूमने दौड़, कि एक छोटे से वायरस ने सारे मुगालतों को काफूर कर  हमें पुनः ईश्वर की शरण के लिए विवश कर दिया | वास्तव में एक दूसरे को पछाड़ने में हमने क्या खोया और क्या पाया अब इस पर मनन जरूरी है | यकीनन सुपर पॉवर बनने के लिए मानव द्वारा प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का जिस तरह से दुरुपयोग किया गया है, वास्तविकता में आज के हालात उसी जीवनदायी प्रकृति के क्रोध का परिणाम है, जिसे कोरोना या हंता कोई भी नाम दिया जा सकता है | अब एक बार फिर दुनिया आशा भरी निगाहों से भारत भूमि की ओर ताक रही हैं, शायद उन्हें विश्वास है कि हमेशा की तरह हम इसमें भी निश्चित ही सफल होंगे |


दुनिया के बडे़ - बडे़ देश जो ज्ञान और विज्ञान के दंभ मे प्रकृति (ईश्वर) को पछाड़ कर कल तक अपने आपको सुपर नेचुरल पॉवर कहते नही थकते थे उन्हें एक सूक्ष्म से परजीवी ने घुटनो पर ला दिया | ऐसे में न एटम बम काम आ रहे हैं और न ही पेट्रो रिफाइनारी | कितने आश्चर्य की बात है कि प्रकृति के विरुद्ध चांद पर आवादी बसाने वाला और मृत इंसान को जीवित करने वाला विज्ञान  एक छोटे से जीवाणु से सामना  करने में असहाय खड़ा दिखाई दे रहा है , और मानव समाज छिपने और बचने की जुगत तलाश रहा है | 
 ये प्रकृति का क्रूूर मजाक नही तो और क्या है कि दुनिया के 170 से ज्यादा देशों में मौत नंगा नाच कर रही है और आधुनिक विज्ञान बेवस निगाहों से बस उसे देख भर रहा है |


मध्य युग में पुरे यूरोप पे राज करने वाला रोम ( इटली ) आज नष्ट होने के कगार पे आ गया , मध्य पूर्व को अपने कदमो से रोदने वाला ओस्मानिया साम्राज्य ( ईरान , टर्की ) अब घुटनो पर हैं , जिनके साम्राज्य का सूर्य कभी अस्त नहीं होता था उस ब्रिटिश साम्राज्य के वारिश बर्मिंघम पैलेस में कैद हैं , जो स्वयं को आधुनिक युग की सबसे बड़ी शक्ति समझते थे , जिनके एक इशारे पर दुनिया के नक्शे बदल जाते हैं उस रूस के बॉर्डर आज सील हैं | वहीं  पूरी दुनिया पर  चौधराहट करने वाला अमेरिका  लॉक डाउन कर लोगों को घरों में कैद करने को मजबूर है, तो वहीं ड्रेगन के नाम से मसहूर चाइना जो वरवक्त दुनिया के देशों को निगलने का भय दिखाता था, उसी की सरजमीं से इस महामारी ने सिर उठाया  वो चीन , आज मुँह छुुपाता फिर रहा है |
इधर महामारी की भयावहता को रोक पाने में ज्यादातर असफल रहे देशों की उम्मीद भरी निगाहे ऋिषी मुनियों की धरा (भारत) से मानव भूल का हल खोजना चाहती है, जिसका सदियों अपमान करते रहे , रोंदते रहे , लूटते रहे ,या यूं कहें कि हमारे संयम, संस्कार और वैदिक ज्ञान का उपहास करते रहे | 
     ये कोरोना या हंता अंत नहीं है बल्कि आरम्भ है  एक नए युद्ध का , और ये युद्ध  सीमाओं को लेकर देशों के बीच नहीं अपितु प्रकृति और विज्ञान के बीच है , जिसका निशाना होगा मानव जीवन , ये उसका आगाज भर है | जैसे जैसे ग्लोवल वार्मिंग के कारण ग्लेशियरो की बर्फ पिघलेगी , वैसे - वैसे लाखो वर्षो से बर्फ की चादर में कैद दानवीय विषाणु आजाद होंगे और दुनिया पर कहर बनकर टूटेंगे , दुनिया के सामने प्रकृति की ओर से ये संक्रमण तो चेतावनी भरी  झांकी है उस आने वाली विपदा की , जिसे हमारी जिज्ञासाओं के वशीभूत होकर विज्ञान ने जन्म दिया है।


अब बात करें वसुदेव कुटुम्बभकं में विश्वास करने वाली भारत भूमि की , तो आज दुनिया कोरोना जैसी महामारी से बचाव के लिए जो सीख दे रही है , वह मेनचेस्टर की औद्योगिक क्रांति और हारवर्ड के इकोनॉमिक्स संसार में नही है , यही वजह है कि दुनिया की आस एक बार फिर भारत की दहलीज पर आ टिकी है |कोरोना के कहर से विश्वभर को समझ में आ गया कि  वैदिक संस्कृति और सभ्यता के बलबूूूते ही इससे निपटना संभव  है , जो पाश्चात्य शैली के ज्ञान मे नहीं तक्षशिला के खंडहरो  , नालंदा की राख मे , शारदा पीठ के अवशेषों और मार्तण्डय के पत्थरो में ही संभव है | मौजूदा हालातों में वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए एहतियात बर्ते या बताए जा रहे हैं , उन्हें भारतीय सभ्यता में सदियों से अपनाया जा रहा  हैं ,  जैसे आलिंगन और हाथ मिलाकर अभिवादन करने के बजाय हाथ जोड़कर अभिवादन करना , हस्त प्रक्षालन अर्थात हाथ धोना , घर में रहें (संयुक्त परिवार) मासाहार निषेध और सबसे बड़ी बात एक दूसरे से दूरी  अर्थात छुआछूत, ये एक ऐसा विषय है जिसको ऊंच-नीच से जोड़कर भारतीय समाज में खाई खोदने का काम अनवरत रूप से चलाकर विश्व वंधुत्वा की बात करने वाले समाज को नष्ट करने का लगातार  कुचक्र चलाया गया |


जिसका मन आया वही अश्वो पर सवार होकर चला आया , रोदने ,लूटने , मारने , प्रकृति और जीव में शिव को देखने वाले समाज को नष्ट करने के लिए !
कोई विश्व विजेता बनने के लिए तक्षशिला को तोड़ कर चला गया, कोई स्वर्ण कांति में अंधा होकर सोमनाथ लूट कर ले गया , तो कोई किसी आसमानी किताब को ऊंचा दिखाने के लिए नालंदा की किताबो को जला गया , तो किसी ने अपने झंडे को ऊंचा दिखाने के लिए विश्व कल्याण का केंद्र बनी गुरुकुल परंपरा को ही नष्ट कर दिया ।
खैर जो भी हो अवसर आया है तो इस संकट की घड़ी में मां भारती के लाल वसुदेव कुटुंम्बकं की मर्यादा का पालन करते हुए इस पर जल्द विजय पाकर दुनिया के सामने फिर परचम लहराएंगे क्योंकि हम  ऋषि दधीचि की संतान हैं जो मानव जीवन की रक्षा के लिए अपने शरीर का अस्थि मज्जा देने में भी पीछे नहीं हटते  । इसलिए ये तय है कि दुनिया को अगर जीना है , तो ऋिषी दधीचि के बताए मार्ग पर चलना ही होगा, तक्षशिला के खंडहरो से माफी मांगनी होगी , नालंदा की खाक फिर से छाननी ही पडे़गी ।


 देर से समझे शंख झालर की ध्वनि और वैदिक मंत्रों का महत्व


 



ईश्वर प्रदत्त प्रकृति अर्थात जल, जंगल और जमीन , जिसने भरण-पोषण और ओषिधी, हमारी हर जरूरत का ख्याल रखा | इसका मरम हमारे पूर्वज शौधों के द्वारा बहुत पहले ही जान गए थे | यही वजह थी कि चन्दन तुलसी को मष्तक पर धारण करना , पीपल आम और अन्य वनस्पतिक लकडि़यों के साथ वैदिक मंत्रोंच्चार के द्वारा हवन करना, शंख झालर और अन्य वाद्य यंत्रों को बजाकर  वातावरण को दूषित होने से बचाने का मूल मंत्र सदियों पहले दिया था | जिसका बार-बार मजाक बनाया गया, इससे भी बड़ी शर्मनाक बात यह है कि पाश्चात्यता की चमक से दृगभ्रमित हमारे अपने भी इसमें पीछे नहीं रहे , परंतु अच्छी बात यह है कि आज उसी की शरण में आकर जीवन रक्षा की भीख मांग रहे हैं |